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शूरा सो पहचानिए जो लड़े दीन के हेत, पुर्जा, पुर्जा कट मरे, कबहुं छाड़े खेत (बहादुर, शूरवीर वही है, जो धर्म के लिए लड़े, चाहे शरीर का पुर्ज़ा पुर्ज़ा कट जाए, पर जंग का मैदान वह कभी छोड़े) हमारा धर्म है सचाई, भारतीयता, ईमानदारी, भाईचारा...

Sunday, April 22, 2012

पृथ्वी दिवस : धरा की सुध तो लो -EARTH DAY


पृथ्वी दिवस संयुक्त राज्य अमेरिका में 22 अप्रैल को मनाया जाता हैयह एक दिवस है जिसे पृथ्वी के पर्यावरण के बारे में प्रशंसा और जागरूकता को प्रेरित करने के लिए डिजाइन किया गया है.
इसकी स्थापना अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन के द्वारा 1970 में एक पर्यावरण शिक्षा के रूप में की गयी,और इसे कई देशों में प्रति वर्ष मनाया जाता है. यह तारीख उत्तरी गोलार्द्ध में वसंत और दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद का मौसम है.
 

पृथ्वी दिवस : धरा की सुध तो लो -EARTH DAY


इस संसार में मां को भगवान से भी बढ़कर स्थान दिया गया है क्यूंकि वह ना सिर्फ हमें जन्म देती है ल्कि हमें पालपोस कर जीने और इस दुनिया में रहने के लायक बनाती है. मां अगर पल भर के लिए भी हमसे दूर हो जाए तो कितना बुरा लगता है ना और अगर खुदा ना करे वह मां बीमार हो जाए तो हम पर क्या बीतती है यह हम ही जानते हैं. लेकिन मां के प्रति यही प्रेमभक्ति और भावना उस वक्त कहां चली जाती है जब हम प्रकृति पर अत्याचार करते हैं. एक मां तो हमें जन्म देती है पर यह प्रकृति भी तो एक मां ही है जो हमें ना सिर्फ जीने के लिए स्थान देती है बल्कि हमें भोजन भी देती हैइसी पृथ्वी से जीने के लिए हवा मिलती है.
 
आज विश्व भर में हर जगह प्रकृति का दोहन जारी है. कहीं फैक्टरियों का गंदा जल हमारे पीने के पानी में मिलाया जा रहा है तो कहीं गाड़ियों से निकलता धुंआ हमारे जीवन में जहर घोल रहा है और घूम फिरकर यह हमारी पृथ्वी को दूषित बनाता है. जिस पृथ्वी को हम मां का दर्जा देते हैं उसे हम खुद अपने ही हाथों दूषित करने में लगे रहते हैं.

पृथ्वी दिवस का इतिहास

प्रकृति पर बढ़ते अत्याचार और प्रदूषण की वजह से ग्लोबल वॉर्मिंग भी बढ़ी और विश्व स्तर पर लोगों को चिंता होनी शुरु हुई. आज ग्लोबल वार्मिंग यानी जलवायु परिवर्तन पृथ्‍वी के लिए सबसे बड़ा संकट बन गया है. 22 अप्रैल, 1970 को पहली बार इस उद्देश्य से पृथ्वी दिवस  मनाया गया था कि लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके. विश्व पृथ्वी दिवस की स्थापना अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन (Gaylord Nelson) के द्वारा 1970 में एक पर्यावरण शिक्षा के रूप में की गयी थी.

1970 से 1990 तक यह पूरे विश्व में फैल गया. 1990 से इसे अंतरराष्ट्रीय दिवस के रुप में मनाया जाने लगा और 2009 में संयुक्त राष्ट्र ने भी 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस के रुप में मनाने की घोषणा कर दी.
 
लेकिन मात्र एक दिन पृथ्वी दिवस के रुप में मना कर हम प्रकृति को बर्बाद होने से नहीं रोक सकते हैं. इसके लिए हमें बड़े बदलाव की जरुरत है. हवा में बातें तो सभी करते हैं लेकिन जमीनी हकीकत से जुड़ कर भी कुछ करना होगा तभी हम पृथ्वी मां के प्रति अपनी सच्ची श्रंद्धाजलि दे पाएंगे. आइए इस पृथ्वी दिवस पर शपथ लें कि आगे किसी कोई भी ऐसा कार्य नहीं करेंगे जिससे इसको नुकसान पहुंचे और अगर ऐसा कोई काम करना भी पड़े तो उसके नुकसान को पूरा करने के लिए जरूर उचित कदम उठाएंगे.
 

Tuesday, April 10, 2012

शंख के वैज्ञानिक पहलू

शंख बजाने के पीछे धार्मिक कारण तो है साथ ही इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी है और शंख बजाने वाले व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ भी मिलता है।शंख की उत्पत्ति कैसे हुई? इस संबंध में हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु अग्रि से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है। शंख की पवित्रता और महत्व को देखते हुए हमारे यहां सुबह और शाम शंख बजाने की प्रथा शुरू की गई है।

शंख का महत्त्व धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, वैज्ञानिक रूप से भी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि शंख-ध्वनि के प्रभाव में सूर्य की किरणें बाधक होती हैं। अतः प्रातः व सायंकाल में जब सूर्य की किरणें निस्तेज होती हैं, तभी शंख-ध्वनि करने का विधान है। इससे आसपास का वातावरण तता पर्यावरण शुद्ध रहता है। आयुर्वेद के अनुसार शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियाँ, पीलिया, कास प्लीहा यकृत, पथरी आदि रोग ठीक होते हैं।

ऋषि श्रृंग की मान्यता है कि छोटे-छोटे बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बाँधने तथा शंख में जल भरकर अभिमंत्रित करके पिलाने से वाणी-दोष नहीं रहता है। बच्चा स्वस्थ रहता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक एवं श्वास रोगी हमेशा शंख बजायें तो बोलने की शक्ति पा सकते हैं।

आयुर्वेदाचार्य डॉ.विनोद वर्मा के अनुसार रूक-रूक कर बोलने व हकलाने वाले यदि नित्य शंख-जल का पान करें, तो उन्हें आश्चर्यजनक लाभ मिलेगा। दरअसल मूकता व हकलापन दूर करने के लिए शंख-जल एक महौषधि है।

हृदय रोगी के लिए यह रामबाण औषधि है। दूध का आचमन कर कामधेनु शंख को कान के पास लगाने से `' की ध्वनि का अनुभव किया जा सकता है। यह सभी मनोरथों को पूर्ण करता है।

यजुर्वेद में कहा गया है कि यस्तु शंखध्वनिं कुर्यात्पूजाकाले विशेषतः, वियुक्तः सर्वपापेन विष्णुनां सह मोदते अर्थात पूजा के समय जो व्यक्ति शंख-ध्वनि करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह भगवान विष्णु के साथ आनंद करता है।

1928
में बर्लिन यूनिवर्सिटी ने शंख ध्वनि का अनुसंधान करके यह सिद्ध किया कि इसकी ध्वनि कीटाणुओं को नष्ट करने कि उत्तम औषधि है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, पूजा के समय शंख में जल भरकर देवस्थान में रखने और उस जल से पूजन सामग्री धोने और घर के आस-पास छिड़कने से वातावरण शुद्ध रहता है। क्योकि शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है।

तानसेन ने अपने आरंभिक दौर में शंख बजाकर ही गायन शक्ति प्राप्त की थी। अथर्ववेद के चतुर्थ अध्याय में शंखमणि सूक्त में शंख की महत्ता वर्णित है।

अथर्ववेद के अनुसार, शंख से राक्षसों का नाश होता है - शंखेन हत्वा रक्षांसि। भागवत पुराण में भी शंख का उल्लेख हुआ है।

यजुर्वेद के अनुसार युद्ध में शत्रुओं का हृदय दहलाने के लिए शंख फूंकने वाला व्यक्ति अपिक्षित है। गोरक्षा संहिता, विश्वामित्र संहिता, पुलस्त्य संहिता आदि ग्रंथों में दक्षिणावर्ती शंख को आयुर्वद्धक और समृद्धि दायक कहा गया है।