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Thursday, August 17, 2017

मोदी किस-किस को सुधारेगा ?

मोदी किस-किस को सुधारेगा ? रेल यात्रा के दौरान लेखक के साथ घटित एक घटना

मोदी किस-किस को सुधारेगा ?

मोदी किस-किस को सुधारेगा
ट्रेन का दरवाजा खुला और एक 6 फीट का तंदरुस्त आदमी अन्दर आया। अन्दर आते ही बोलना शुरू कर दिया,
“किसने बंद किया था दरवाजा?”
दरवाजे के पास खड़े 2-3 आदमियों में से कोई भी कुछ न बोला।
तभी शेर की तरह दहाड़ता हुआ वो शख्स फिर बोला,
“बताओ किसने बंद किया था? तुम लोग कभी नहीं सुधर सकते। मोदी किस-किस को सुधारेगा? बताओ मुझे मैं अभी सुधारता हूँ।अभी 10 मिनट दरवाजा न खोलते तो ठण्ड से शरीर ठंडा पड़ जाता और कहीं न कहीं हाथ छूटता और मैं गिर जाता।”
ये घटना है 28 दिसम्बर की है । साल का सबसे ठंडा महीना और सबस से ठन्डे दिन चल रहे थे। मैं अमृतसर से किसी काम के लिए दिल्ली जा रहा था। ट्रेन में काफी भीड़ थी। किसी तरह मैं एक सीट प्राप्त करने में सफल रहा। वो भी ऊपर जो जगह शायद सामान रखने के लिए बनायी जाती है। ठण्ड होने के कारन ट्रेन के पास बैठे कुछ लोगों ने दरवाजा बंद कर दिया था। स्टेशन आने पर वे दरवाजा खोल देते थे। और ट्रेन चलने पर बंद कर देते थे।

ट्रेन के अन्दर भीड़ बढ़ चुकी थी। रात के तकरीबन 12:20 बजे रहे होंगे। नींद मुझ पर हावी हो रही थी। तभी अचानक मैंने आवाज सुनी,
“दरवाजा खल दीजिये बाबू साहब। पहले ही एक ट्रेन छूट गयी है। इसके बाद कोई दूसरी ट्रेन नहीं है सुबह तक।”
ऐसी ही कुछ मिन्नतें उन्होंने बार-बार की लेकिन अन्दर से एक ही जवाब बाहर जा रहा था कि अन्दर जगह नहीं है। ट्रेन धीरे-धीरे चलने लगी। जैसे-ऐसे ट्रेन की स्पीड बढ़ रही थी वैसे-वैसे बहार से आवाज लगते लोगों का लहजा बदल रहा था,
“अबे दरवाजा खोल। सुनाई नहीं पड़ रहा क्या बे?”
ऐसे ही बोलते-बोलते वो गाली-गलौच पर आये लेकिन तब तक ट्रेन तेज हो चुकी थी।
इस चीज ने मेरे मन पर एक अघात किया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि एक इन्सान इतना निर्दयी भी हो सकता है। क्यों एक इन्सान खुद को कभी दुसरे की जगह रख कर कोई फैसला नहीं लेता? ऐसे ही सवाल मेरे दिमाग में चल रहे थे और नींद एक बार फिर आँखों पर हावी हो चुकी थी।
समय 3:30 बजे का हो चुका था। ट्रेन एक बार फिर सोनीपत स्टेशन पर रुकी। न कोई चढ़ा न उतरा। ट्रेन फिर से चल पड़ी। तभी ट्रेन के बाहर से किसी की आवाज आने लगी। लेकिन दरवाजा न खोला गया। फिर खिड़की तक हाथ पंहुचा कर किसी ने खड़काया। ये देखने पर दरवाजे के पास बैठे आदमी दर्वे का पास से हटे और दरवाजा खोला।
ट्रेन का दरवाजा खुला और एक 6 फीट का तंदरुस्त आदमी अन्दर आया। अन्दर आते ही बोलना शुरू कर दिया,
“किसने बंद किया था दरवाजा?”
दरवाजे के पास खड़े 2-3 आदमियों में से कोई भी कुछ न बोला।
तभी शेर की तरह दहाड़ता हुआ वो शख्स फिर बोला,
“बताओ किसने बंद किया था? तुम लोग कभी नहीं सुधर सकते। मोदी किस-किस को सुधारेगा? बताओ मुझे मैं अभी सुधारता हूँ। अभी 10 मिनट दरवाजा न खोलते तो ठण्ड से शरीर ठंडा पड़ जाता और कहीं न कहीं हाथ छूटता और मैं गिर जाता।”
तभी अपनी सफाई में उनमें से एक आदमी बोला कि दरवाजे के पास से हटने और दरवाजा खोलने में टाइम तो लगता ही है।
तब उस आदमी ने एक ऐसा भाषण दिया जिसने समाज की सच्चाई को जीवंत कर दिया। उसने बोलना शुरू किया,
“जब ट्रेन में आग लगती है या कोई दुर्घटना होती है तो तुम जैसे लोगों की वाह से कोई अपनी जान नहीं बचा पाता। तुम सब लोग बस हम जैसों के आगे बोल सकते हो। सोते हुए आदमी को जगा कर एक किन्नर पैसे मांग के ले जाती है तब किसी की आवाज नहीं निकलती। ये जो ट्रेन में इतने लोग दिख रहे हैं ना, सब मुर्दा हैं। मरे हुए लोगों से भरी पड़ी है ये ट्रेन। अभि९ तुम्हें मार के चला जाऊं तो कोई कुछ नहीं बोलेगा। इन जैसे लोगों की वजह से ही गुंडों की हिम्मत बढ़ जाती है। लेकिन अगर सब एक हो जाये तो 4 आदमी तुम्हारा क्या बिगाड़ सकते हैं? बस एक साथ तुम लोग दरवाजा ही बंद कर सकते हो।”
इतना सुन ने के बाद कोई कुछ न बोला या फिर बोल न सका। और ओ बोल रहे थे वो बस यही बोल रहे थे कि बिलकुल सही कहा।
यहाँ सवाल यह है कि उसने सही कहा ये बोलने वाले लोग उस वक़्त कहाँ थे जब ये सब हुआ? वो तब कहाँ थे जब ट्रेन छूट गयी।
दरवाजा न खुलने के कारन कई लोगों के साथ ये हादसा होता होगा। या जो भी हादसे होते हैं ऐसे लोगों का उनमें कुछ न कुछ योगदान जरूर होता है।
समाज की यही सच्चाई है। एक भाषण से सब प्रभावित तो होते हैं लेकिन कुछ समय के लिए। हमें अपनी सोच को बदल न होगा। नहीं तो इस समाज में ही हमारा कोई अपना लोगों के बुरे व्यव्हार का शिकार बन जाएगा और तब हम खुद समाज को दोष देंगे।
इसलिए अभी से खुद को समाज का एक हिस्सा मान कर सच्चाई की आवाज बुलंद करें। धन्यवाद।

मुश्किलें इस जहान में

मित्रों जैसा की हमने पहले भी आप लोगों को यह बताया था कि अगर आप में लिखने की प्रतिभा और रुचि है तो आप अपने लेखकवितायेँ या अन्य सामग्री आप हम तक पहुंचा सकते हैं। हमारी टीम उसका विश्लेषण करेगी और यदि आपके लेखन को चुना जाता है तो हम उसे अपने ब्लॉग पर जरूर प्रकाशित करेंगे। इसी चीज को आगे बढ़ाते हुए हम गोबिंदप्रीत सिंह जी की अमृतसर के रहने वाले हैं। उनकी कविता “ मुश्किलें इस जहान में ” को हम अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करने जा रहे हैं।

मुश्किलें इस जहान में

मुश्किलें इस जहान में
बहुत हो रही है मुश्किलें इस जहान में
कहीं हो रही हैं मौतें व्यापम के जाल में
कहीं हो रहे घोटाले पैसे के माया जाल में
बहुत हो रही हैं मुश्किलें इस जहान में।
कहीं भाई मारता है खून को जमीन की खातिर
कहीं बाप मारता है बेटी को झूठी जमीर की खातिर
कहीं मारता है इंसान इंसानियत को
जीतने के लिए इस जहान में,

बहुत हो रही हैं मुश्किलें इस जहान में।
घर में हो गए हैं बंटवारे कि अब प्यार न रहा मकान में
सो जाते हैं भूखे फुटपाथ पर जिनका होता नहीं कोई जहान में
बेटा सोती माँ को मार जाता है नशे के अभाव में
बहुत हो रही हैं मुश्किलें इस जहान में।
अगर इंसान करे जरा भी ख्याल जहान पर
करे थोड़ी दया तबाह होते जहान पर
खुद समझे और समझाए दूजों को अपनों की खातिर
तो न रहेंगी ए प्रीत सिंह मुश्किलें इस जहान में
बहुत हो रही हैं मुश्किलें इस जहान में।





दोस्तों आपको ये कविता कैसी लगी हमें जरूर बताएं। आपके द्वारा दिए गए विचारों से लिखने वालों को और भी प्रेरणा मिलेगी। नये लेखकों का हौसला बढ़ाने के लिए उनके लेखन पर प्रतिक्रिया जरूर दें। यदि आप में भी लिखने की प्रतिभा है और लिखना चाहते हैं तो देर न करें अपनी रचना हम तक पहुँचाए।
धन्यवाद।



सबसे आगे निकलना भैया

सबसे आगे निकलना भैया

सबसे आगे निकलना भैया
मतवालों के टोलों को बस
बस्ते का भार ही ढोना है,
सबसे आगे निकलना भैया
यही तो सबका रोना है।
बचपन निकला कक्षा में
कॉलेज में जवानी निकल गयी,
बेरोजगारी से जीवन की
हालत देखो विकल भई,
देर रात तक कर तैयारी
सरकारी परीक्षाओं की सोना है,
सबसे आगे निकलना भैया
यही तो सबका रोना है।
जब बच्चे थे तब भी हमको
पापा ये समझाते थे,
देखो शर्मा जी के बेटे
कितने नंबर लाते हैं,
जो तुम अब भी न पढ़ते तो
बन मजदूर भार ही ढोना है,
सबसे आगे निकलना भैया
यही तो सबका रोना है।

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कोशिश करते थे हम तो पूरी
किताब न छोड़ी कोई अधूरी,
मास्टर जी की बातों से
न जाने क्यों रहती थी दूरी,
रटते जाओ जो भी रटाते
पास अगर जो होना है,
सबसे आगे निकलना भैया
यही तो सबका रोना है।
इज्ज़त है अंकों से हमको
बात ये सब ने समझाई,
न जाने फिर क्यों इस जग ने
शिक्षा मेरी फिर अजमाई,
आज समझ में आया हमको
क्या चांदी क्या सोना है,
सबसे आगे निकलना भैया
यही तो सबका रोना है।

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हो जाते सपने पूरे गर
हमको कोई समझ पता,
पा लेते उस क्षेत्र में मंजिल
जो है अपने मन भाता,
भटक रहे जो जीवन में
बस इसी बात का तो रोना है,
सबसे आगे निकलना भैया
यही तो सबका रोना है।
गुजरा है ये वक़्त मगर अभी
सामने जीवन पूरा है,
पाना है मुझे ख्वाब वो अपना
अब तक जो अधूरा है,
बढ़ना है, पानी ऊँचाई है
अब हो जाए जो होना है,
सबसे आगे निकलना भैया
यही तो सबका रोना है।

Sunday, August 13, 2017

कुहरे की इक चादर ओढ़े, देखो जाड़ा आया है |


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कुहरे की इक चादर ओढ़े, देखो जाड़ा आया है |
लगातार गिरते पारे ने, फिर कुहराम मचाया है||

इसके आगे आज सभी ने, अपना शीश नवाया है |
सूरज का तेज हुआ मद्धिम, चाँद खूब मुस्काया है ||

हर कोई यहाँ दिख रहा है, मख़मली दुशाला ओढ़े |
कपड़े सबके ऊनी फिर भी, साथ न यह जाड़ा छोड़े ||

कही ठिठुरते दादा दादी, कही काँपती नानी है |
कही रात भर गिरता पाला, कही बर्फ सा पानी है ||


सन-सन चलती हवा रात दिन, थर-थर हाड़ कपाती है |
जलता अलाव मिले जहाँ भी, भीड़ वही लग जाती है ||
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बच्चे हों या बूढ़े जवान, सबकी एक कहानी है |

रोज नहाने में ही अक्सर, होती आनाकानी है ||

कम्बल ओढ़े आग तापते, देह नही गरमाती है |
बिस्तर कोई जैसे छोड़े, गर्म चाय ललचाती है ||

साथ बैठ मूंगफली खाते, आपस में गपियाते हैं |
जिस दिन भी छुट्टी हो अपनी, पिकनिक खूब मनाते हैं ||


छत पर बैठे धूप सेंकते, पेपर पढ़ते जाते हैं |
अच्छी बुरी खबरों के बीच, मन ही मन मुस्काते हैं ||
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साथ मटर छिलते सारे गर, होता कुछ बनवाना है |
जाड़े भर खाने को मिलता, तिल गुड़ लाई दाना है ||

गरम पकौड़ी चिप्स रेवड़ी, मम्मी लगी बनाने में
शकरकंद आलू सिंघाड़ा, सबको मिलता खाने में ||

बच्चे पतंग खूब उड़ाते, बाघ कटा चिल्लाते हैं |
जाड़े में मस्ती वो करते, दिनभर उधम मचाते हैं ||
जिंदगी से जी भर गया कब का।
टूट कर मैं बिखर गया कब का ।।

***
इक मुहब्बत का था नशा मुझको।
वो नशा भी उतर गया कब का।।
***
चाहता था तुझे दिल-ओ-जां से।
वक़्त वो तो गुज़र गया कब का।।

***
देख हालत नशे के मारों की।
ख़ुद-ब-ख़ुद वो सुधर गया कब का।।

***
देख कर छल फ़रेब दुनिया के।
एक "इंसान" मर गया कब का।।

फैसले के लिए सिक्का न उछाला जाए






फैसले के लिए सिक्का न उछाला जाए
जान माँगे जो वतन वक़्त न टाला जाए

हाँ मैं हूँ मुल्क़ तुम्हारा न उछालो मिट्टी
नौज़वानों मुझे गड्डे से निकाला जाए

अच्छे अच्छों के किये होश ठिकाने लेकिन
होश में हो जो उसे कैसे सँभाला जाए

आपने कह दिया झट से कि मैं, मैं हूँ ही नहीं
मेरे भीतर मुझे थोड़ा तो खँगाला जाए

ज़ह्र के दाँत उखाड़ो कि कुचल डालो फन
आस्तीनों में यूँ नागों को न पाला जाए

मुफ़लिसी ने मिरी आगाह किया है मुझको
यार पव्वे के लिए वोट न डाला जाए


कोई 'खुरशीद' कहीं हो तो सुने मेरी सदा
गाँव के आख़री घर तक भी उजाला जाए

बुझी राख मत हमे समझना






बुझी राख मत हमे समझना, अंगारो के गोले हैं |

देश आन पर मिटने वाले, हम बारूदी शोले हैं ||

हम सब ख़ौफ़ नही खाते हैं, विध्वंसक हथियारों से |
सीख लिया है लड़ना हमने, तुझ जैसे मक्कारो से ||

पहला वार नही हम करते, पहले हम समझाते हैं |
फिर भी कोई आँख दिखाये, महाकाल बन जाते हैं ||

शेरो के हम वंशज सारे, सुन इक बात बताते हैं |
एक झपट्टे में ही पूरा, खाल खींच हम लाते हैं ||

आन बान की रक्षा में हम, हँस कर शीश चढ़ाते हैं |
जिस देश धरा पर जन्म हुआ, उसका कर्ज चुकाते हैं ||

नागफनी के काटो से हम, कभी नहीं घबराते हैं।
सर्पों के फन कुचल कुचल कर, हाथों से लहराते हैं ||

दिल में हल्दी घाटी बैठी, लिए हाथ में भाले हैं |
मातृभूमि पर मिटने वाले, शूरवीर मतवाले हैं||

सिंह गर्जना करते है हम, आग लगाते पानी में |
भाग्य शूरमा का होता गर, हो कुर्बान जवानी में ||



माथे तिलक लगाती हमको, वीर प्रसूता मातायें |
वीर शिवा राणा सुभाष की, भरी पड़ी हैं गाथायें ||

आँख मिचौली बन्द करो तुम, खौफ़ न खाते बिल्ली से|
इक पल में हम चीर फाड़ दें, हुक्म मिले गर दिल्ली से ||

सरहद है महफूज हमारी, अपने वीर जवानों से |
लिखते है इतिहास नया नित, जो अपने बलिदानों से ||

इक बगियाँ के फूल सभी हम, भारत माँ के बच्चे हैं |
हमको अलग समझने वाले, मूर्ख अक्ल के कच्चे हैं ||

गंगा जमुनी तहजीब यहाँ, सारे जग से न्यारी है |
सम्प्रुभता अपने भारत की, हमको जाँ से प्यारी है ||

टोपी भी हमने पहनी है, सर साफा भी बाँधा है
कृष्ण भक्त रसखान कहीं तो, कहीं नाचती राधा है||

बड़ी शान से हम सब मिलकर, देश ध्वजा फहराते हैं |
सकल विश्व को भारत माँ का, हम जयघोष सुनाते हैं ||

कविता :देशभक्ति के रंग ----- कमांडर निशांत शर्मा।


कविता :देशभक्ति के रंग
----- कमांडर निशांत शर्मा।

तुझको मेरे मुझको तेरे प्यार का आभास हो,
इंसान की इंसान से इंसानियत की आस हो।
कौम- औ- धरम के अफ़साने बहाने भूलकर ,
 राम का रौज़ा रखूँ मैं ईद का उपवास हो।
देशभक्ति के जुनूं का रंग न कोई जात हो ,
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई हैं न एहसास हो।
सेज चंदन की मिले या हो नसीब दो गज़ ज़मीं ,
इस वतन पे हो न्योंछावर अंतिम मेरी सांस हो।
खो रहा चैन -औ -अमन मज़हब ही मानो मर्ज़ हो ,
राम में हो कुछ रहीम गीता कुरआन -ए -ख़ास हो।
मंदिर मस्जिद गिरजे गुरद्वारे ही जैसे रूठें हों ,
मंदिर में 'अल्लाह हु अकबर 'गिरजे में अरदास हो।
मुझसे मेरा नाम औ ईमान तुम न पूछिए ,
उत्तर -दाख्खिन पूरब पश्चिम हम वतन सब काश हों।
हाथ सिर और नज़रें तिरछी जो उठे मैं काट दूँ ,
लहराए तिरंगा रक्त में लथपथ जो मेरी लाश हो।