आज यह दीवार,

मेरी प्रोफाइल देखें ...
शूरा सो पहचानिए जो लड़े दीन के हेत, पुर्जा, पुर्जा कट मरे, कबहुं छाड़े खेत (बहादुर, शूरवीर वही है, जो धर्म के लिए लड़े, चाहे शरीर का पुर्ज़ा पुर्ज़ा कट जाए, पर जंग का मैदान वह कभी छोड़े) हमारा धर्म है सचाई, भारतीयता, ईमानदारी, भाईचारा...

Monday, March 11, 2013

क्या आप भी हिंदी से डरते हैं?

क्या आप भी हिंदी से डरते हैं?

  clip_image001

हिंदी से अब सचमुच डर लगता है भाई!

भले ही आप लाख कसम खा लें, मगर आप भी मेरी तरह हिंदी से डरते होंगे. हिंदी ने मुझे बहुत डराया है. शुरू से. और अब भी डरता हूं. जब मैं हिंदी मीडियम में हिंदी स्कूल में पढ़ता था तो अपनी 'उस हिंदी मीडियम' के कारण मुहल्ले के कॉन्वेंटी छात्रों से बेहद डरता था. उच्च शिक्षा की बारी आई तो वहाँ भी हिंदी ने बहुत डराया. मेरी हिंदी भाषा वहाँ थी ही नहीं. मुझे एक विदेशी – अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पढ़ाई करनी पड़ी. तो मैं पढ़ता अंग्रेज़ी में था, और उसका तर्जुमा मन ही मन हिंदी में कर फिर उसे हिंदी में समझता था. परीक्षा में अंग्रेजी माध्यम में उत्तर लिखने होते थे तो उत्तर पहले सोचता हिंदी में था, फिर उसका तर्जुमा मन ही मन अंग्रेजी में करता था और लिखता था. यही हाल अंग़्रेजी में मौखिक परीक्षा के समय होता था. इस तरह मेरी हिंदी ने मुझे बहुत बहुत डराया.

खैर, जैसे तैसे पढ़ाई पूरी की. नौकरी में आए. यहाँ भी तमाम सरकारी पत्राचार अंग्रेज़ी में. ऊपर से तुर्रा ये कि हर साल 14 सितम्बर को ये फरमान आए कि हिंदी में काम करो हिंदी में काम करो. उस दौरान ऐसे ही उत्साह में एक बार हमने अपने एक उच्चाधिकारी के अंग्रेजी में लिखे पत्र का जवाब हिंदी में लिख मारा. दुर्भाग्य से पता नहीं था कि वो साउथ से था और करुणानिधि के विचारों का समर्थक था. मेरी इस लिखी हुई हिंदी से वो उच्चाधिकारी इतना आहत हुआ और मुझे इतना डराया कि अक्खा नौकरी बजाते तक हिंदी में दोबारा लिखने का साहस डरते-डरते भी फिर कभी नहीं किया.

इस बीच कंप्यूटरों पर काम करने लगे. हिंदी यहाँ भी भयंकर रूप से हमें डराती रही. कहीं फ़ॉन्ट नहीं दिखता था तो कहीं कीबोर्ड नहीं चलता था. किसी को बढ़िया हिंदी में लिखकर ईमेल भेजा तो एनकोडिंग और फ़ॉन्ट की समस्या के कारण सामने वाले ने वापस डराया कि क्या कचरा भेज दिया है – ईमेल लिखना नहीं आता क्या - हिंदी में भी कोई ईमेल लिखा जाता है? आज भी सही हिंदी लिखने के लिए कंप्यूटर पर एक ढंग का न तो स्पैल चेकर है और न व्याकरण जांचक. अब भला कौन हिंदी लिखने वाला लिखते लिखते नहीं डरेगा ही कि वो कि लिखे कि की!

और, हमें ही क्या. हिंदी तो खुद कंप्यूटरों को भयंकर डराती है. कंप्यूटरों के लिए हिंदी बेहद कॉम्प्लैक्स यानी बेहद जटिल भाषा है. चीनी से भी ज्यादा जटिल. इसीलिए हिंदी के कंप्यूटर प्रोग्राम ज्यादा बन नहीं पाते हैं. कंप्यूटरों में प्रयोग होने वाला जटिल से जटिल लॉजिक भी ये नहीं समझ पाता कि क में छोटी ई की मात्रा बाद में लगती है और छपते समय पहले क्यों आ जाती है, और दो आधे अक्षर एक दूसरे पर ऊटपटांग तरीके से युग्म कैसे बना डालते हैं. आप अपने कंप्यूटर में हिंदी इंटरफेस एनेबल कर देखें - आपके कंप्यूटर के प्रोसेसर को एकदम से चालीस प्रतिशत ज्यादा काम करना पड़ेगा और हो सकता है कि वो हाँफने भी लगे. एक विद्वान ने एक फोरम में बताया था कि हिंदी के तमाम युग्म शब्दों को आज तक कोई भी माई का लाल सूची बद्ध नहीं कर पाया है. इतना डराती है हींदि - ओह, सॉरी,  हिंदी या हिन्दी?

चूंकि हम अपने पढ़ाई के जमाने से हिंदी से डरे हुए थे, और यह समस्या अपने बच्चों को न हो इसीलिए हमने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में डाला. परंतु हमसे यहीं बड़ी भूल हो गई. हम हिंदी से और ज्यादा डरने लगे. बच्चे सनडे मनडे तो जानते हैं, मगर सोमवार रविवार नहीं. उनसे पत्राचार करने के लिए देवनागरी हिंदी के बजाए महा डरावनी रोमन हिंदी पर उतरना पड़ता है. ऊपर से न तो वो अंग्रेजी ढंग से जानते हैं न हिंदी. पता नहीं क्या होगा इस देश का!

 

हिंदी से डरते रहो!

 

व्यंज़ल

 

जाने कितनों को डराता है

वो फकत हिंदी बोलता है

 

उसे अब कौन पूछता है

जो फकत हिंदी लिखता है

 

वो बड़ा देसी बनता है

बीच में हिंदी फेंकता है

 

उसका तो खुदा भी नहीं

अब जो हिंदी पढ़ता है

 

आधुनिक बन गया रवि

वो हिंदी को कोसता है

फ़ेसबुक और सेल्फ-कंट्रोल

फ़ेसबुक और सेल्फ-कंट्रोल

clip_image001

फ़ेसबुक के जमाने में सेल्फ कंट्रोल?

अमां, क्या बात करते हो!

निगोड़े फ़ेसबुक ने तो सचमुच हम सबका स्व-नियंत्रण खत्म ही कर डाला है

और इस बात को इस लिए सच न मानें कि दुनिया जहान के फेसबुक मित्रों के उनके स्टेटस संदेशों में घोर ऊटपटांग-अनियंत्रित किस्म की बातें पढ़ कर कही जा रही हैं.

दरअसल, यह बात एक शोध निष्कर्ष में सामने आई है.

और आखिर स्व-नियंत्रण हो भी क्यों? जब एक दूसरे की फ़ेसबुक वाल पोतने के लिए सामने खाली पड़ी हो तो जो मर्जी आए रंग भरो. और, लोगों का प्रिय शगल जाति-धर्म जैसा विषय मिल जाए तो फिर बात ही क्या. कभी कभी तो लगता है कि फ़ेसबुक की लोकप्रियता के पीछे शायद एक मात्र यही वजह भी हो, और शायद इसे डिजाइन ही इसीलिए और इस तरह किया गया हो. आखिर, पूरी दुनिया की एक चौथाई आबादी फ़ेसबुक में क्यों पिली पड़ी रहती है. दूसरे तरीके से सोचें तो यह भी संभव दिखता है कि आदमी अपना स्व-नियंत्रण यहाँ आराम से बड़ी बे-तकल्लुफ़ी से एक ओर रख कर अपना काम कर सकता है.

अब आप अपने आम जीवन में चलते फिरते लोगों को गाली-गलौच नहीं कर सकते. सभ्यता का झूठा आवरण ओढ़ना पड़ता है. फ़ेसबुक में फर्जी प्रोफ़ाइल बनाइए और अपना शून्य स्व-नियंत्रण युक्त मसौदा सबके सामने परोसिए.

वैसे देखा जाए तो स्व-नियंत्रण के मामले में फ़ेसबुक ने हिंदुस्तान में नेताओं पर सबसे ज्यादा असर डाला है. वे फ़ेसबुक का उपयोग करते हों या नहीं, जैसा कि पैसिव स्मोकिंग का प्रभाव होता है, ठीक उसी तरह हिंदुस्तानी जनता के फ़ेसबुकिया इस्तेमाल के कारण हिंदुस्तानी नेता स्व-नियंत्रण से बाहर हो गए हैं. कम से कम उनकी बयानबाजी को देख कर तो लगता ही है. जहाँ देश में सीमा के भीतर और सीमा पर बहुत कुछ ठीक नहीं चल रहा हो, वहाँ प्रधान मंत्री यूं तो कभी कुछ कहता नहीं, और जब कहता है तो बस, ठीक है कहता है.

लेखकों साहित्यकारों पर भी फ़ेसबुकिया स्व-नियंत्रण खत्म होने के आसार स्पष्ट नजर आ रहे हैं. एक मशहूर शायर कसाब और अमिताभ बच्चन को बराबर के तराजू में तौलते हैं और बताते हैं कि एक ने एक को बनाया और एक और ने दूसरे को. पर, अब लाख टके का सवाल ये भी तो है कि उन शायर महोदय को किसने बनाया?

यूँ तो इस तरह प्रत्यक्ष और परोक्ष फ़ेसबुकिया प्रभाव के तहत स्व-नियंत्रण खत्म होने के सैकड़ों उदाहरण पेश किए जा सकते हैं, मगर इससे पहले कि यह आरोप इस ब्लॉग पोस्ट पर भी लगे, आपसे आज्ञा चाहता हूँ.