चचा कितने गहरे हैं, उनके शेरों से पूछो:
किसी को दे के दिल कोई नवा-सन्ज-ए फ़ुग़ां क्यूं हो
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुंह में ज़बां क्यूं हो
(जब किसी को दिल ही दे दिया, तो उसका रोना कैसा? आखिर सीने में दिल नहीं, तो मुँह में ज़बान भी क्यूँ हो?)
वह अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़ा क्यूं छोड़ें
सुबुक-सर बन के क्या पूछें कि हम से सर-गिरां क्यूं हो
(आशिक़ और महबूब दोनों अपनी आन के पक्के हैं. कोई भी दूसरे से यह भी नहीं पूछ रहा के वो इतना मग़रूर क्यूँ है. आखिर दोनो ही मग़रूर हैं न!)
किया ग़म-ख़्वारी ने रुसवा लगे आग इस मुहब्बत को
न लावे ताब जो ग़म की वह मेरा राज़-दां क्यूं हो
(आशिक़ के राज़दानों कि हमदर्दी और कमज़ोर-दिली कि वजह से वह बदनाम हुआ जा रहा है. आखिर ऐसे राज़दानों का क्या फ़ायदा?)
वफ़ा कैसी कहां का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर ऐ सँग-दिल तेरा ही सँग-ए आस्तां क्यूं हो
(ज़ालिम महबूब हमेशा यही कहता है के 'मेरे ज़ुलमों की शिकायत न किया करो, तुम तो वफ़ादार हो'. पर इसमे 'वफ़ा' का क्या काम, के अगर मेरी क़िसमत में सर ही फोडना है, तो उसी महबूब के चौखट के पत्थर पे ही क्यूँ?)
क़फ़स में मुझ से रूदाद-ए चमन कहते न डर हमदम
गिरी है जिस पह कल बिजली वो मेरा आशियां क्यूं हो
(बेहतरीन शेर! अभी-अभी एक नये ग़म की चपेट में आया इन्सान (पँछी) जो पहले ही ग़म में डूबा हुआ हो,अपने नये ग़म की अपेक्षा (ignore) करता है. पिँजरे में क़ैद पँछी, अपने बाहर बैठे दोस्त से कहता है "ऐ दोस्त, तू मुझे कल का चमन का पूरा हाल सुना, मत डर. कल जिस आशियाने पे बिजली गिरी है, वो तो मेरा हो ही नहीं सकता. मै पहले ही इतने दु:ख में हूँ, भला मुझ पे और ग़म क्यूँ आ-गिरने लगा?". बहुत खूब!!)
ये कह सकते हो हम दिल में नहीं हैं पर यह बतलाओ
कि जब दिल में तुम्हीं तुम हो तो आंखों से निहां क्यूं हो
(महबूब आशिक़ से कहता है 'क्यूँ गिला करते हो? क्या हम तुम्हारे दिल में नहीं रहते?खो'. पर आशिक़ कहता है 'अगर दिल में रहते हो, तो आँखों में क्यूँ नहीं दिखते?'...मिलने क्यूँ नहीं आते?)
ग़लत है जज़्ब-ए दिल का शिकवा देखो जुर्म किस का है
न खेंचो गर तुम अपने को कशाकश दरमियां क्यूं हो
(ऐ महबूब तू दिल के खिँचने का शिक़वा कैसे कर सकता है? तू अगर अपने दिल को खींचकर न रखे, मेरी ओर आने दे, तो ये कश-म-कश भला हो ही क्यूँ? भई वाह!)
ये फ़ितना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उसका आस्मां क्यूं हो
(तेरी दोस्ती से तो अच्छे-अच्छों के घर वीरान हो जायें)
यही है आज़माना तो सताना किस को कह्ते हैं
अदू के हो लिये जब तुम तो मेरा इम्तिहां क्यूं हो
(महबूब कभी कभी कहता है 'मैं तो तुम्हे आज़मा रहा था'. अगर वो रक़ीब का हो ही लिया, तो भला मेरा'इम्तिहान' लेने का क्या मतलब?)
कहा तुम ने कि क्यूं हो ग़ैर के मिलने में रुस्वाई
बजा कहते हो सच कहते हो फिर कहयो कि हां क्यूं हो
(महबूब रक़ीब से मिलता है. और कहता है 'भला इसमें रूसवाई क्यूँ हो?' इसपे आशिक़ कहता है 'तुम कितना सच कहती हो. तुम्ही मुझे बताओ, के रूसवाई क्यूँ हो?')
निकाला चाह्ता है काम क्या तानों से तू 'ग़ालिब'तेरे बे-मिहर कहने से वो तुझ पर मिहरबां क्यूं हो
(जैसा के चचा ने पूरि ग़ज़ल मे किया), आशिक़ महबूब को ताने मार्-मार के काम निकलवान चाहता है. पर ये तरीक़ा काम नहीं करता. भला महबूब को 'बेमिह्र' कहने से वो मेहरबान हो जायेगा?
No comments:
Post a Comment