आज यह दीवार,

मेरी प्रोफाइल देखें ...
शूरा सो पहचानिए जो लड़े दीन के हेत, पुर्जा, पुर्जा कट मरे, कबहुं छाड़े खेत (बहादुर, शूरवीर वही है, जो धर्म के लिए लड़े, चाहे शरीर का पुर्ज़ा पुर्ज़ा कट जाए, पर जंग का मैदान वह कभी छोड़े) हमारा धर्म है सचाई, भारतीयता, ईमानदारी, भाईचारा...

Wednesday, December 7, 2011

इस शहर में अब मन नहीं लगता...




बंसत निकल चुका था... हर तरफ फागुन की मस्ती छाई थी.. खेतों में गेंहूं की फसल कट चुकी थी... गन्ना भी खेतों से उठ चुका था... दिल्ली


में बहुत दिन रहने के बाद अकेलेपन में घर की याद सताने लगी थी... मैंने दफ्तर से कुछ दिन की छुट्टी ली और अपने घर चला गया... घर दिल्ली से दो


सौ किलोमीटर था, लेकिन अपना था... सफर काटना मुश्किल हो रहा था... मन कर रहा था, कि उड़ते हुए घर पहुंच जाऊं... घरवाले बहुत याद आ रहे थे...


सात घंटे की थकान भरा सफ़र पूरा करने के बाद मैं घर पहुंचा, तो घर में सूने चेहरों पर मुस्कुराहट लौट आई थी.. मेरे जाने से मानों घर


खिल चुका था... घरवाले भी जानते थे, कि मैं दो-या तीन दिन की छुट्टी पर ही आया हूं.. लेकिन उनके लिए इतना ही काफी था, कि मैं उनकी नज़रों के


सामने हूं...नाते-रिश्तेदारों से मुलाकात के बाद मैंने अपने खेत पर जाने का फैसला किया... चाचा को साथ लेकर मैं जंगल में अपने खेत पर निकल गया...


गन्ने की फसल पूरी तरह उठ चुकी थी... खेत की मेंडों पर चारों तरफ लिप्टिस और पॉपुलर के पेड़ लगा दिये गये थे.. लिप्टस के पेड़ तो अब छाया भी देने


लगे थे... बाकी खेत में गन्ने की पेड़ी थी... बीच-बीच में मैंथा भी बो दिया गया था... खेत अपनी तारीफ अपने मुंह से कर रहा था..



मेरा मन किया कि अब वापस दिल्ली न जाकर यहीं रुक जाऊं... अब कौन है दिल्ली में.. किसके लिए वापस जाऊं... यहां तो सभी अपने हैं.. मां-बाप हैं.. भाई


हैं.. अपना घर है... और सबसे बड़ी बात अपनापन है... कम से कम मां के हाथ का खाना तो मिलेगा... दिल्ली में ढंग से खाना भी नसीब नहीं होता... मां के


हाथ का खाना खाए हुए तो महीनों बीत जाते हैं... शकरकंद की खीर खाए हुए तो कई साल हो गये... लेकिन इस बार घर पर मां से कहकर गन्ने


के रस की खीर ज़रूर बनवाई थी.. बहुत मज़ा आया था उसे खाने में.. कई साल बाद गन्ने के रस की खीर खाने का मौका मिला था...मेरे दिल ने


फिर कहा... अब दिल्ली लौटकर क्या करोगे... कोई नहीं है वहां तुम्हारा... सिवाए नौकरी के... वो भी मज़दूरों जैसी... न खाने का होश... न जीने का... लेकिन


फिर कहीं मन में एक ख्याल आ जाता.. कि घर पर मैं करूंगा भी क्या... न कोई नौकरी.. न कोई कारोबार...



लेकिन मन ने कहा..नहीं..नहीं.. अभी नहीं... इतनी जल्दी नहीं... अभी कुछ दिन और देखता हूं... शायद कोई बात बन जाए... इसी उधेड़बुन में छुट्टी के तीन


दिन कहां गुज़र गये... पता भी नहीं चला... ऐसा लगा जैसे हवा का एक झोका आया... और सबकुछ उड़ाकर ले गया... मां की आंखों में आंसू थे.. इन तीन


दिन में उनसे दो लफ्ज़ ढंग से बाते भी नहीं हुई थीं.. वक्त तो जैसे तूफ़ान की तरह उड़ गया था...


दिल्ली के लिए रावनगी की तैयारी शुरु हो गई... इसी बीच मैंने मौका निकालकर पापा से कह ही दिया...


पापा.. अब दिल्ली में मन नहीं लगता.. वापस घर आने को दिल करता है..


हां... तो आ जाओ.. इसमें परेशानी क्या है...


परेशानी तो कोई नहीं है.. लेकिन मैं सोच रहा हूं, कुछ दिन नौकरी और कर लूं... फिर जल्द ही यहां वापस लौट आऊंगा...


कोई बात नहीं.. तुम अपना मन बना लो... फिर जब चाहें आ जाना.. यहां तो तुम्हारा घर है...


पापा की इतनी सी बात ने बड़ा सहारा दे दिया...



अनमने मन से घरवालों से विदाई लेकर दिल्ली के लिए रवानगी की... लेकिन घर से निकलते वक्त भी दिल कह रहा था, कि वापस मत जाओ.. वहां कौन है


तुम्हारा... किसके लिए जा रहे हो.. लेकिन क्या करता.. नौकरी जो ठहरी..........


फिज़ा भी मुखालिफ थी.. रास्ते मुख्तलिफ थे... हम कहां मुकाबिल थे.. सारा ज़माना मुख़ालिफ़ था..


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